Copy Paste – 26 आचार्य चाणक्य

चाणक्य ईसापूर्व 371चन्द्रगुप्त मौर्य के महामंत्री थे जिनकी वजह से चंद्रगुप्त को मगध का साम्राज्य मिला। उन्हें विष्णुगुप्त और कौटिल्य के नाम से भी जाना जाता है कुछ मूर्ख परम् ज्ञानी कौटिल्य को कुटिल से जोड़ देते है तो आइये सबसे पहले कौटिल्य की व्याख्या जान लेते है —

चाणक्य_का_नाम_कौटिल्य_क्यों ?

कुटल वंश का होने के कारण चाणक्य को कौटिल्य नाम से बुलाया गया और इसका उल्लेख विष्णु पुराण में इस श्लोक में है —

तान्नदान् कौटल्यो ब्राह्मणस्समुद्धरिष्यति।

इसके अतिरिक्त इसकी पुष्टि कामन्दकीय नीतिशास्त्र में कहा गया है—

कौटल्य इति गोत्रनिबन्धना विष्णु गुप्तस्य संज्ञा
अर्थात विष्णुगुप्त को कौटिल्य नाम गोत्र के कारण मिला

क्या_चाणक्य_ने_सिर्फ_अर्थशास्त्र_की_रचना_की ?

चाणक्य ने ज्योतिष के लिए — ‘विष्णुगुप्त_सिद्धांत’

आयुर्वेद पर एक ग्रंथ — ‘वैद्यजीवन’

नीतिशास्त्र के लिए — नीतिसार (कामन्दकने संग्रह किया)

समाज शास्त्र के लिए — बोधिचाणक्य

इसके अलावा — वृद्धचाणक्य, लघुचाणक्य , मण्डल सिद्धांत , सप्तक सिद्धान्त और चाणक्यनीति भी बहोत महत्वपूर्ण है ।।

चाणक्य ने ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों के लिए ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा सन्न्यास आश्रमों का विधान किया है। किन्तु जब तक किसी व्यक्ति के ऊपर घरेलू दायित्व है, तब तक उसे वानप्रस्थ या सन्न्यास आश्रम में नहीं जाना चाहिए, ऐसा उनका मत है। इसी प्रकार जो स्त्रियां सन्तान पैदा कर सकती हैं, उन्हें सन्न्यास ग्रहण करने का उपदेश देना कौटिल्य की दृष्टि में अनुचित है।
और इसके लिए उन्होंने एक मोनिटरिंग सिस्टम भी बनाया था ताकि समाज अपने दायित्वों से भागे न ………

सनातन धर्म के लिए उन्होंने अनेको वैदिक ग्रंथो के भाष्य किये —
और ग्रंथों के अंत में कौटिल्येन कृतं शास्त्रम्’ तथा प्रत्येक अध्याय के अन्त में ‘इति कौटिलीयेऽर्थशास्त्रे’ लिखकर अपना मत रखा है और अन्त में ‘इति कौटिल्य’ अर्थात् कौटिल्य का मत है लिखा है ।।

चाणक्य का जीवन

मगध पर क्रूर धनानंद का शासन था, जो बिम्बिसार और अजातशत्रु का वंशज था। सबसे शक्तिशाली शासक होने के बावजूद उसे अपने राज्य और देश की कोई चिंता नहीं थी। अति विलासी और हर समय राग-रंग में मस्त रहने वाले इस क्रूर शासक को पता नहीं था कि देश की सीमाएं कितनी असुक्षित होकर यूनानी आक्रमणकारियों द्वारा हथियाई जा रही है। हालांकि 16 महाजनपदों में बंटें भारत में उसका जनपद सबसे शक्तिशाली था।

बौद्ध काल तथा परवर्तीकाल में उत्तरी भारत का सबसे अधिक शक्तिशाली जनपद था। पहले इसकी राजधानी थी गिरिव्रज (राजगीर) बाद में इसकी राजधानी बनी पाटलीपुत्र। इस राज्य में अति प्रसिद्ध एक नगर था- वैशाली नगर। यहां की एक नगरवधू विश्‍व प्रसिद्ध थी जिसे आम्रपाली कहा जाता था। आम्रपाली बौद्ध काल में वैशाली के वृज्जिसंघ की इतिहास प्रसिद्ध राजनृत्यांगना थी।

पहले इस मगध पर वृहद्रथ के वीर पराक्रमी पुत्र और कृष्ण के दुश्मनों में से एक जरासंध का शासन था जिसके संबध यवनों से घनिष्ठ थे। जरासंध के इतिहास के अंतिम शासक निपुंजय की हत्या उनके मंत्री सुनिक ने की और उसका पुत्र प्रद्योत मगध के सिंहासन पर आरूढ़ हुआ।

प्रद्योत वंश के 5 शासकों के अंत के 138 वर्ष पश्चात ईसा से 642 वर्ष पूर्व शिशुनाग मगध के राजसिंहासन पर आरूढ़ हुआ। मगध के राजनीतिक उत्थान की शुरुआत ईसा पूर्व 528 से शुरू हुई, जब बिम्बिसार ने सत्ता संभाली। बिम्बिसार के बाद अजातशत्रु ने बिम्बिसार का कार्यों को आगे बढ़ाया।

अजातशत्रु ने विज्यों (वृज्जिसंघ) से युद्ध कर पाटलीग्राम में एक दुर्ग बनाया। बाद में अजातशत्रु के पुत्र उदयन ने गंगा और शोन के तट पर मगध की नई राजधानी पाटलीपुत्र नामक नगर की स्थापना की। पा‍टलीपुत्र के राजसिंहासन पर आरूढ़ हुए नंद वंश के प्रथम शासक महापद्म नंद ने एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की और मगध साम्राज्य के अंतिम नंद धनानंद ने उत्तराधिकारी के रूप में सत्ता संभाली। बस इसी अंतिम धनानंद के शासन को उखाड़ फेंकने के लिए चाणक्य ने शपथ ली थी। हलांकि धनानंद का नाम कुछ और था लेकिन वह धनानंद नाम से ज्यादा प्रसिद्ध हुआ।

तमिल भाषा की एक कविता और कथासरित्सागर अनुसार नंद की ’99 करोड़ स्वर्ण मुद्राओं’ का उल्लेख मिलता है। कहा जाता है कि उसने गंगा नदी की तली में एक चट्टान खुदवाकर उसमें अपना सारा खजाना गाड़ दिया था।

मगध के सीमावर्ती नगर में एक साधारण ब्राह्मण आचार्य चणक रहते थे। चणक को हर वक्त देश की चिंता सताती रहती थी। एक और जहां यूनानी आक्रमण हो रहा था तो दूसरी ओर पड़ोसी राज्य मालवा, पारस, सिंधु तथा पर्वतीय प्रदेश के राजा भी मगध का शासन हथियाना चाहते थे।

चणक ने तय किया था कि मैं अपने पुत्र कौटिल्य को ऐसी शिक्षा दूंगा कि राज्य और राजा उसके सामने समर्पण कर देंगे।
चणक चाहते थे किसी तरह महामात्य के पद तक पहुंचना। इसके लिए उन्होंने अपने मित्र अमात्य शकटार से मंत्रणा कर धनानंद को उखाड़ फेंकने की योजना बनाई। अमात्य शकटार महल का द्वारपालों का प्रमुख था।

लेकिन गुप्तचर के द्वारा महामात्य राक्षस और कात्यायन को इस षड्‍यंत्र का पता लग गया। गुप्त संदेश द्वारा चणक और शकटार की मुलाकात का पता चल गया। उसने घनानंद को इस षड्‍यंत्र की जानकारी दी। दरअसल, शकटार के खुद के भरोसेमंद द्वारपाल देवीदत्त ने यह गुप्त सुचना पहुंचाई थी।

महामात्य ने देवीदत्त से चणक की सारी जानकारी ली और उन्होंने चणक को बंदी बना लिए जाने का आदेश दिया। यह बात सबसे पहले चणक के पुत्र कौटिल्य को पता चली जबकि वे बहुत ही छोटी उम्र के थे।
चणक को बंदी बना लिया गया और राज्यभर में खबर फैल गई कि राजद्रोह के अपराध में एक ब्राह्मण की हत्या की जाएगी।

चणक का कटा हुआ सिर राजधानी के चौराहे पर टांग दिया गया।
पिता के कटे हुए सिर को देखकर कौटिल्य (चाणक्य) की आंखों से आंसू टपक रहे थे। उस वक्त चाणक्य की आयु 14 वर्ष थी। रात के अंधेरे में उसने बांस पर टंगे अपने पिता के सिर को धीरे-धीरे नीचे उतारा और एक कपड़े में लपेटा।

अकेले पुत्र ने पिता का दाह-संस्कार किया। तब कौटिल्य ने गंगा का जल हाथ में लेकर शपथ ली – ‘हे गंगे, जब तक हत्यारे धनानंद से अपने पिता की हत्या का प्रतिशोध नहीं लूंगा तब तक पकाई हुई कोई वस्तु नहीं खाऊंगा। जब तक महामात्य के रक्त से अपने बाल नहीं रंग लूंगा तब तक यह शिखा खुली ही रखूंगा। मेरे पिता का तर्पण तभी पूर्ण होगा, जब तक कि हत्यारे धनानंद का रक्त पिता की राख पर नहीं चढ़ेगा…।
हे यमराज धनानंद का नाम तुम अपने लेखे से काट दो। उसकी मृत्यु का लेख अब मैं ही लिखूंगा।

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